160wpm hindi dictation chhattisgarh reporter vidhan sabha
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सभाध्यक्ष
महोदय, 90 के बाद से ही
हमारे राष्ट्रीय विमर्श में यह बात बहुत भरोसे से कही जाती है कि देश में आर्थिक
सुधारों को लेकर राष्ट्रीय सहमति है। आश्चर्य की बात है कि राजनीतिक प्रशासनिक
सुधारों खास तौर पर चुनाव सुधारों के बारे में यही बात भरोसे के साथ नहीं कही
जाती। क्या अपने देश में लोग बड़े पैमाने पर चुनाव सुधार नहीं चाहते। सच यह है कि
देश में अगर चुनाव सुधारों को लेकर राय ली जाये तो उसके पक्ष में भारी मतदान होगा।
उतना समर्थन शायद ही आर्थिक सुधारों को मिले पर हमारे सियासतदान और बड़े पदों पर
बैठे लोग लोकतंत्र के इस बड़े एजेंडे को उठाने में दिखाते हैं। हाल के वर्षों में
निर्वाचन आयोग, न्यायविदों और समाजशास्त्रियों की तरफ से चुनाव सुधार
के (1)कई महत्वपूर्ण सुझाव आए पर कानून बनाने और बदलने वाले लोगों की तरफ से कोई
बड़ी पहल सामने नहीं आयी।
महोदय, पिछली सरकार ने राजनीतिक दलों और
उम्मदीवारों की चुनाव फंड के बारे में निर्वाचन आयोग द्वारा पेश कुछ प्रस्तावों
को जिस तरह आनन फानन में खारिज किया या कुछ एक को ठंडे बस्ते में डाला उससे सरकार
की लोक तांत्रिक प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल उठते हैं। बीते कुछ सालोंके अनुभवों की
रोशनी में आम तौर पर देश का हर तबका मानता है कि जिन कुछ संवैधानिक निकायों ने
हमारे लोकतंत्र को जीवंत और अनपक्षी बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
है उनमें निर्वाचन आयोग सबसे उल्लेखनीय है। इस आयोग ने अपने कामकाज और अनुभवों से
सबक लेते हुए पिछले दिनों एक प्रस्ताव दिया कि राजनीतिक दलों की चुनाव बजट की
मौजूदा नियमावली में कुछ जरूरी संशोधन होने चाहिए।
अध्यक्ष महोदय, (2) सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश में उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा
तय है लेकिन राजनीतिक दलों के लिए कोई सीमा नहीं है। ऐसा क्यों ? सबसे पहले तो राजनीतिक दलों के खर्चों की सीमा बांधी जानी चाहिए।
राष्ट्रीय दलों के लिए अलग और क्षेत्रीय दलों के लिए अलग होनी चाहिए। उम्मीदवारों
की संख्या के हिसाब से दलीय खर्च की सीमा में मामूली बदलाव भी किया जा सकता है
पर कुछ न कुछ तो होनेा चाहिए। आखिर पार्टियों के चुनाव प्रचार प्रसार खर्च की सीमा
क्यों न बांधी जाये ? बीते दो दशक के चुनावों का आकलन
किया जाये तो पांएगे कि देश में चुनाव के दौरान होने वाले बेतहाशा खर्च उसमें
करापोरेट बजट और कालाधन के इस्तेमाल जैसी विकृतियों का लगातार विस्तार हुआ है।
यह सब सिर्फ इसलिए हुआ कि अपने देश में राजीनितिक दलों के चुनाव प्रचार प्रसार
खर्च पर (3)अंकुश या नियमन के लिए कोई वैधानिक प्रावधान ही नहीं है। निर्वाचन आयोग
सिर्फ उम्मीदवारों के खर्च पर नजर रख सकता है पार्टियों के खर्च पर नहीं।
सभापति जी, हमारी चुनाव
प्रक्रिया में आई विकृतियों का समय रहते निराकरण न होने से भी राजनीति में
विचारहीनता बढ़ी है। धनशक्ति और बलशक्ति के दबाव में राजनीतिक सोच और राजनीतिक
कार्यकर्ताओं की हैसयित गिरी है। आर्थिक सुधारों के दौर में धनार्जन करके एक नया
वर्ग भी राजनीति में उतरा है। पुराने बाहुबलियों के साथ इन नये धनपतियों की
जुगलबंदी राजनीति का व्याकरण बदल रही है।
ज्यादातर
राजनीतिक दलों ने चुनाव में धन और बाहुबल को टिकिट दिये जाने का आधार बना लिया है
वरना दलित एजेंडे पर आधारित होने का दावा करने वाली एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी
दिल्ली में एक अरबपति संपत्ति डीलर को टिकट क्यों देती और समाजवादी धारा की
विरासत संभालने (4)का दावा करने वाली एक अन्य प्रमुख पार्टी आपराधिक प्रवृत्ति के
किसी राजा को अपना खासमखास क्यों बनाती ? धन और बाहुबल के प्रभा मंडल में
आम राजनीतिक कायैकर्ता मारा गया है। राजनेताओं के लिए उससे ज्यादा
जरूरी आज बाहुबली और मुद्राबली नामक प्रजातियां को गई हैं। राजनीतिक मूल्यों की
पतनोन्मुखता पर अंकुश लगाया जा सकता था अगर आर्थिक सुधारों के साथ राजनीतिक खासकर
चुनाव सुधारों पर ध्यान दिया गया होता। पर वह नहीं हुआ । इससे हमारे लोकतांत्रिक
ढांचे में विकृतियां लगातार बढ़ती रही । इसका असर पार्टियों के अंदरूनी तंत्र और
चुनाव प्रक्रिया में भी दिखा। इन सभी कारकों ने भ्रष्टाचार का अस्तित्व रक्षा और
प्रभाव विस्तार का जरूरी आचार बना दिया। समावेशी विकास के अभाव और निवेश रोजगार
का अनुकूल माहौल न होने से भी लोगों में दलाली और लूट में हिस्सेदारी बढ़ी। इन
विकृतियों से निपटने के लिए आज बड़े (5)चुनावी सुधारों की जरूरत है।
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